मानस रंजन महापात्र की पाँच कविताएँ

Aug 10, 2025 - 23:33
Aug 11, 2025 - 00:06
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मानस रंजन महापात्र की पाँच कविताएँ

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Manas Ranjan Mahapatra

स्वप्नवाहक के दिन

और भला कौन सा चित्र आज दिखाओगे 
चित्रकार !

लड़खड़ाते होंगे पाँव 
भारी भारी पलकें 
खुलते नहीं होंगे बंद दरवाजे 
सपने सारे घुटनों पर आ रहे होंगे 
सीढ़ी दर सीढ़ी।

अब और किस समुन्दर में 
इस नाव को तुम बहा दोगे 
सौदागर ?

टूट रहे होंगे पंख 
पवन भी छू नहीं रहा होगा 
किसी तयशुदा 
ठोस शून्यता को, 
कौन से काल और क्षण में 
जकड़ लेने को 
मुझे बाध्य करोगे 
प्रियवर !

चुपचाप

कब से न जाने 
चुपचाप जिंदगी बचाए फिरते हैं, 
छिपकिली दीवार पर 
और मैं 
अपने सोने के कमरे में।

एक अर्से से 
हम दोनों हैं हमसफ़र 
फर्क बस इतना है 
उसे पता है भागना पूँछ छोड़ कर,
पर मुझे नहीं आता 
खुदको बचाना।

छिपकिली दाहिनी ओर गिरे 
तो राजयोग, 
ज्योतिष का कहना है, 
बायीं ओर 
योग कुछ और भी होता है, 
कोई भी योग कभी खुलता क्यों नहीं मेरा 
अचानक घटता नहीं कुछ भी 
ना राजयोग, प्रजायोग 
ना ही कोई भोग, 
हमेशा दुर्योग ही दुर्योग मेरे साथ रहता, 
मैं उसे कंधे पर उठाए 
चलता रहता विक्रमादित्य की तरह  
बेताल का साथी बन कर।

हमेशा बस इतना ही घटता है 
चुपचाप।

गतानुगतिक

जरा सी मिट्टी थी पाँव तले 
इसीलिए तो खड़ा हो पाया हूँ 
एक पेड़ बन कर।

जब तक है दो गज जमीन 
मुझे जरुरत नहीं है किसी श्मशान की।

टूट कर फिसल रहीं डालियाँ 
पहचानी नहीं जा रहीं बहंगियाँ 
अनजान आँधी मेरे पंखों को 
काट कर उड़ा रही।

फिरभी मैं लहूलुहान पक्षी 
कोशोँ दूर तक 
बेपरवाह उड़ता रहता हूँ 
जीता रहता हूँ कभी मरता रहता हूँ 
फिरभी बेपरवाह उड़ता रहता हूँ।

अपना विचित्र भाग्य

हर रोज 
हर पल का भाग्य 
अलग अलग होता है, 
देखो 
तुमने कल जिसको शिकस्त दी थी 
आज वह राजाधिराज है।

ऐसे वीभत्स दिन 
आ भी सकते हैं 
क्या तुमने कभी कल्पना की थी ?
क्या सपने में भी सोचा था 
कि भोर होते ही खिसक जाएगी 
तुम्हारे पाँव तले की मिट्टी ?
और तुम झूलते रहोगे लाचार।

यह क्या है ?
किसीका जादू है 
या नियति तुम्हारी 
या एक नई शुरुआत का 
हरित इशारा ?  

देश

गंगा में बहती लाशें 
उदास हैं ठूँठ जैसे,
मशान की निगरानी करता चौकीदार 
देश की तरह फरार।

क्या हम ऐसे ही चुपचाप 
तमाशा देखते रहेंगे 
जहाँ नाले की कीचड़ के गैस से  
चाय बनती, उस चाय की दुकान पर 
अड्डा जमाते रहेंगे।

तुम सब कहाँ हो भाई, 
आओ, निकलो माँद से, 
अरे देश तुम्हारा नीलाम हो रहा,
खरीद सको तो लगाओ बोली 
खरीद सको तो लगाओ बोली 
कहाँ गया मेरा प्रिय देश 
नजाने किस बाजार में 
उसकी बोली लग रही, 
अहा, मेरा प्रियतम भारतवर्ष।

???? ओड़िआ से अनुवाद : राधू मिश्र

मानस रंजन महापात्र(1960) ओड़िया भाषा के एक प्रख्यात कवि, अनुवादक व संपादक हैं। छह कविता संकलन, दो कहानी संकलन एक उपन्यास तथा पचास से अधिक अनुवाद पुस्तक एवं अंग्रेजी में एक संस्मरण पुस्तक के लेखक श्री महापात्र लंबे समय तक राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (एन.बी.टी.) नई दिल्ली के राष्ट्रीय बाल साहित्य केन्द्र के प्रमुख रहे थे। सेवा निवृत्त होकर इस समय वे पुरी (ओड़िशा) में रहते हैं। 
संपर्क : मधुवन, छठवीं गली, टिकरपाड़ा रोड़, पुरी, ओड़िशा - 752002
ईमेल : mrmahapatra@yahoo.co.in 
मोबा : 98919 46178
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 राधू मिश्र  (1952) राउरकेला इस्पात संयंत्र से सेवा निवृत्त राजभाषा अधिकारी। ओड़िआ के एक समर्थ व्यंग्यकार, स्तम्भकार और बरसों तक एक ओड़िआ व्यंग्य मासिक का संपादन। ओड़िआ में नौ पुस्तकें तथा हिंदी में आठ पुस्तकें प्रकाशित। ओड़िशा साहित्य अकादेमी सम्मान तथा उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से सौहार्द सम्मान प्राप्त।
संपर्क : 303, पर्ल हाईटस, पानपोष, राउरकेला - 769004, ओड़िशा, मो : 9178 549 549
ईमेल : radhu.mishra7@gmail.com

Manas Ranjan Mahapatra
Former Director, Government of India
Plot No 10,Dakshinkali Lane
Samagara Nuasahi
Near Gopalpur Pharmacy College
P. O. Baliguali
Puri-752002
Odisha 
Mob 9891946178